Vice President: उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने आज कहा, “संवैधानिक प्रावधानों के तहत किसी न्यायाधीश के विरुद्ध कार्रवाई करना एक विकल्प हो सकता है, लेकिन यह समाधान नहीं है। हम एक लोकतंत्र होने का दावा करते हैं — और वास्तव में हैं भी। दुनिया हमें एक परिपक्व लोकतंत्र के रूप में देखती है, जहाँ कानून का शासन और कानून के समक्ष समानता होनी चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि हर अपराध की जांच होनी चाहिए। यदि धनराशि इतनी अधिक है, तो यह जानना आवश्यक है — क्या यह काला धन है? इसका स्रोत क्या है? यह किसी न्यायाधीश के सरकारी आवास में कैसे पहुंचा? यह धन किसका है? इस पूरे घटनाक्रम में कई दंडात्मक प्रावधानों का उल्लंघन हुआ है। मुझे आशा है कि एफआईआर दर्ज की जाएगी। हमें इस मुद्दे की जड़ तक जाना होगा, क्योंकि लोकतंत्र में यह महत्वपूर्ण है। हमारी न्यायपालिका, जिस पर लोगों का विश्वास अडिग है, आज इस घटना के कारण उसकी नींव डगमगा गई है। यह गढ़ हिल गया है।”
राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, कोच्चि (NUALS) में छात्रों और संकाय सदस्यों के साथ संवाद के दौरान, शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक ‘जूलियस सीज़र’ का उल्लेख करते हुए, उपराष्ट्रपति ने कहा:
“मेरे युवा मित्रों, यदि आपने ‘आइड्स ऑफ मार्च’ के बारे में सुना है—तो आप जानते होंगे कि कैसे एक ज्योतिषी ने सीज़र को चेताया था। जब सीज़र ने कहा कि ‘आइड्स ऑफ मार्च’ आ गया है, तो ज्योतिषी ने उत्तर दिया—‘हां, लेकिन गया नहीं’, और उसी दिन सीज़र की हत्या हो गई। इसी तरह, हमारी न्यायपालिका के लिए 14-15 मार्च की रात एक दुर्भाग्यपूर्ण समय रहा। एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के आधिकारिक आवास से भारी मात्रा में नकदी मिली। यह अब सार्वजनिक डोमेन में है और सुप्रीम कोर्ट ने भी इसकी पुष्टि की है। ऐसी स्थिति में, सबसे पहले इसे एक आपराधिक कृत्य मानकर तत्काल कार्रवाई होनी चाहिए थी। दोषियों की पहचान कर उन्हें न्याय के कटघरे में लाना चाहिए था। लेकिन अब तक कोई एफआईआर दर्ज नहीं हुई है। केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के 1990 के दशक के एक निर्णय के कारण विवश है।”विद्यार्थियों को समस्याओं से जूझने का साहस रखने का आह्वान करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा: हमें समस्याओं का सामना करने का साहस रखना चाहिए। विफलताओं को तर्कसंगत ठहराने की प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए। हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि हम उस राष्ट्र के नागरिक हैं जिसे वैश्विक विमर्श को दिशा देनी है। हमें एक ऐसे विश्व का निर्माण करना है जहाँ शांति और सौहार्द हो। हमें पहले अपने ही संस्थानों के भीतर असहज सच्चाइयों का सामना करने का साहस रखना चाहिए… मैं न्यायपालिका की स्वतंत्रता का प्रबल पक्षधर हूं। मैं न्यायाधीशों की सुरक्षा के पक्ष में हूं। वे कार्यपालिका के विरुद्ध निर्णय देते हैं, और विधायिका के मामलों को भी देखते हैं। हमें उन्हें तुच्छ मुकदमों से बचाना चाहिए। लेकिन जब कुछ ऐसी घटनाएं सामने आती हैं, तो चिंता स्वाभाविक है।”
न्यायपालिका की स्थिति पर उपराष्ट्रपति ने कहा: हाल के वर्षों में हमारी न्यायपालिका ने एक अशांत दौर देखा है। लेकिन सुखद बात यह है कि अब एक बड़ा परिवर्तन आया है। वर्तमान मुख्य न्यायाधीश और उनके पूर्ववर्ती ने जवाबदेही और पारदर्शिता का एक नया युग शुरू किया है। अब चीजें पटरी पर लौट रही हैं। लेकिन उससे पहले के दो वर्ष अत्यंत चुनौतीपूर्ण और असामान्य रहे। कई निर्णय बिना सोच-विचार के लिए गए—जिन्हें सुधारने में समय लगेगा। क्योंकि यह अत्यंत आवश्यक है कि संस्थान अपनी पूर्ण क्षमता से कार्य करें।”न्यायपालिका में जनविश्वास पर उपराष्ट्रपति ने कहा: “हमारी न्यायपालिका को जनता का अपार विश्वास और सम्मान प्राप्त है। यदि उस विश्वास में दरार आती है, तो हम एक गंभीर संकट में फंस सकते हैं। 1.4 अरब की आबादी वाले देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।”
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सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को दिए जाने वाले पदों पर चिंता व्यक्त करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा: कुछ संवैधानिक प्राधिकरणों को सेवानिवृत्ति के बाद कोई सरकारी पद स्वीकार करने की अनुमति नहीं होती—जैसे लोक सेवा आयोग के सदस्य, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG), मुख्य चुनाव आयुक्त आदि। ऐसा इसलिए है ताकि वे प्रलोभनों और दबावों से मुक्त रहें। यही स्थिति न्यायाधीशों के लिए भी अपेक्षित थी। लेकिन अब सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों को चुनिंदा पद दिए जा रहे हैं। जब सभी को नहीं, बल्कि कुछ को ही पद मिलते हैं, तो यह चयन और संरक्षण का मामला बनता है—जो न्यायपालिका को गंभीर रूप से प्रभावित करता है।”
राष्ट्रपति और राज्यपाल की शपथ के महत्व पर उपराष्ट्रपति ने कहा: राष्ट्रपति और राज्यपाल ही ऐसे दो संवैधानिक पद हैं, जिनकी शपथ अन्य सभी से भिन्न होती है। उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, सांसद, विधायक और न्यायाधीश सभी संविधान का पालन करने की शपथ लेते हैं। लेकिन राष्ट्रपति और राज्यपाल ‘संविधान की रक्षा, संरक्षण और सुरक्षा’ की शपथ लेते हैं। यह एक अत्यंत विशिष्ट दायित्व है। और केवल इन्हें अपने कार्यकाल के दौरान अभियोजन से प्रतिरक्षा प्राप्त होती है—किसी और को नहीं। मुझे प्रसन्नता है कि राज्यपाल श्री राजेंद्र वी. अर्लेकर इस पद की मर्यादा बनाए हुए हैं, जबकि राज्यपाल को अक्सर निशाना बनाया जाता है।”
संविधान की प्रस्तावना में किए गए संशोधनों पर उपराष्ट्रपति ने कहा: संविधान की प्रस्तावना बच्चों के लिए माता-पिता की तरह होती है—आप उन्हें बदल नहीं सकते। दुनिया में किसी भी देश की प्रस्तावना नहीं बदली गई है। लेकिन हमारे देश में यह बदली गई—उस समय जब आपातकाल लगा था, जब हजारों लोग जेल में थे, जब न्यायिक व्यवस्था तक आम जनता की पहुंच नहीं थी, और मौलिक अधिकार पूरी तरह निलंबित थे। उस समय लोकसभा का कार्यकाल भी 5 वर्षों से अधिक बढ़ाया गया। आप इसे गहराई से समझें—हम अपने माता-पिता को नहीं बदल सकते, वैसे ही प्रस्तावना को नहीं।”
