संसदीय विमर्श में शिष्टाचार और अनुशासन की कमी; रणनीति के रूप में अशांति फैलाना लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए खतरा

Lack of decorum and discipline in parliamentary discourse; inciting unrest as a strategy is a threat to democratic institutions

Etiquette in Parliamentary Debate:उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने आज संसदीय विमर्श में शिष्टाचार और अनुशासन के गिरते स्तर पर चिंता व्यक्त की। आज संविधान सदन में संविधान दिवस पर अपने संबोधन में उन्होंने कहा, “वर्तमान समय में संसदीय चर्चा में शिष्टाचार और अनुशासन की कमी है, आज के दिन हमें अपनी संविधान सभा की शानदार कार्यप्रणाली को दोहराकर इसका समाधान करना चाहिए। रणनीति के रूप में अशांति पैदा करना लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए खतरा है। रचनात्मक संवाद, बहस और सार्थक चर्चा के माध्यम से हमारे लोकतांत्रिक मंदिरों की पवित्रता को बहाल करने का समय आ गया है ताकि हम लोगों की प्रभावशाली ढंग से सेवा कर सकें।”

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उपराष्ट्रपति ने कहा, “यह उत्कृष्ट कृति हमारे संविधान निर्माताओं की गहन दूरदर्शिता और अटूट समर्पण का उपहार है, जिन्होंने लगभग तीन वर्षों में हमारे देश की नियति को आकार दिया, मर्यादा और समर्पण का उदाहरण प्रस्तुत किया तथा आम सहमति और समझदारी पर ध्यान केंद्रित करते हुए विवादास्पद और विभाजक मुद्दों पर विचार किया।सरकार के अंगों के बीच सत्ता के विभाजन की भूमिका और उनके बीच मुद्दों को हल करने के लिए एक तंत्र बनाने की आवश्यकता पर जोर देते हुए, उपराष्ट्रपति धनखड़ ने कहा, “हमारा संविधान लोकतंत्र के तीन स्तंभों – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका – को सरलता से स्थापित करता है – जिनमें से प्रत्येक की भूमिका परिभाषित है। लोकतंत्र का सबसे अच्छे तरीके से विकास तब होता है जब इसकी संवैधानिक संस्थाएँ अपने अधिकार क्षेत्र का पालन करते हुए आपसी सामंजस्य, मेलजोल  और एकजुटता से काम करती हैं। सरकार के इन अंगों के कामकाज में, अपने-अपने क्षेत्रों की विशिष्टता ही वह तत्व है जो भारत को समृद्धि और समानता की अभूतपूर्व ऊंचाइयों की ओर ले जाने में अभूतपूर्व योगदान दे सकती है। इन संस्थानों के शीर्ष पर बैठे लोगों के बीच परस्पर संवाद के तंत्र के विकास से मिलजुलकर राष्ट्र की सेवा में अधिक आसानी होगी।”

 

संविधान की प्रस्तावना के प्रारंभिक शब्दों – “हम भारत के लोग”- का उल्लेख करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा कि “संविधान के प्रारंभिक शब्द, ‘हम भारत के लोग’, गहरे अर्थ रखते हैं, जो यह स्थापित करते हैं कि अंतिम अधिकार नागरिकों का ही है, तथा संसद उनकी आवाज के रूप में कार्य करती है”। इसमें लोगों की संप्रभुता को रेखांकित किया गया है।मौलिक कर्तव्यों के पालन पर जोर देते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा, “हमारा संविधान मौलिक अधिकारों का आश्वासन देता है और मौलिक कर्तव्यों का निर्धारण करता है। यह उस नागरिकता को परिभाषित करता है, जो हर बात से अवगत हो, और डॉ. अंबेडकर की इस चेतावनी को भी व्यक्त करता है कि बाहरी खतरों से कहीं अधिक आंतरिक संघर्ष लोकतंत्र को खतरे में डालते हैं। अब समय आ गया है कि हम राष्ट्रीय संप्रभुता की रक्षा, एकता को बढ़ावा देने, राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देने और अपने पर्यावरण की सुरक्षा के अपने मौलिक कर्तव्यों के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध हों। हमें हमेशा अपने राष्ट्र को सर्वोपरि रखना चाहिए। हमें पहले से कहीं अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है। ये प्रतिबद्धताएँ हमारे विकसित भारत @ 2047 के दृष्टिकोण को प्राप्त करने और एक ऐसा राष्ट्र बनाने के लिए महत्वपूर्ण हैं जो प्रगति और समावेश का उदाहरण हो।”

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संसद सदस्यों के कर्तव्यों पर विशेष रूप से जोर देते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा, “सभी नागरिकों, विशेष रूप से संसद सदस्यों को ऐसे कदम उठाने चाहिए ताकि विश्व के मंच पर हमारे राष्ट्र की गूंज हो। इस सम्मानित सदन में लोकतांत्रिक बुद्धिमत्ता की गूंज हो, नागरिकों और उनके निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच गहरा संबंध बना रहे।आपातकाल के अंधेरे दौर को याद करते हुए,उपराष्ट्रपति  धनखड़ ने कहा, “लोकतंत्र के संरक्षक के रूप में, हम अपने नागरिकों के अधिकार और उनकी आकांक्षाओं का सम्मान करने और राष्ट्रीय कल्याण और सार्वजनिक हित से प्रेरित उत्कृष्टतम योगदान देकर उनके सपनों को निरंतर आगे बढ़ाने का पवित्र कर्तव्य निभाते हैं। यही कारण है कि अब 25 जून को हर साल आपातकाल की याद दिलाने के लिए विशेष दिवस मनाया जाता है – वह सबसे काला दौर जब नागरिकों के मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था, लोगों को बिना किसी कारण के हिरासत में लिया गया था और नागरिक अधिकारों का उल्लंघन किया गया था।”राष्ट्र को सर्वोपरि रखने की आवश्यकता पर जोर देते हुए,उपराष्ट्रपति धनखड़ ने डॉ. बी.आर. अंबेडकर के भाषण का जिक्र किया और कहा, “मैं अंत में 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में दिए गए अंतिम भाषण में डॉ. अंबेडकर के विचारों का उल्लेख करना चाहता हूँ: “जो बात मुझे सबसे अधिक परेशान करती है, वह यह है कि भारत ने न केवल एक बार अपनी स्वतंत्रता खोयी है, बल्कि उसने इसे अपने ही कुछ लोगों के कपट और विश्वासघात के कारण खो दिया है। क्या इतिहास खुद को दोहराएगा?”यही विचार मुझे चिंता से भर देता है। यह चिंता इस तथ्य के एहसास से और भी गहरी हो जाती है कि जातियों और पंथों के रूप में हमारे पुराने शत्रुओं के अलावा हमारे पास कई राजनीतिक दल होंगे जिनके राजनीतिक पंथ अलग-अलग और परस्पर विरोधी होंगे। क्या भारतीय लोग देश को अपने पंथ से ऊपर रखेंगे या वे पंथ को देश से ऊपर रखेंगे?””मुझे नहीं पता। लेकिन इतना तो निश्चित है कि अगर पार्टियां धर्म को देश से ऊपर रखती हैं, तो हमारी स्वतंत्रता दूसरी बार ख़तरे में पड़ जाएगी और शायद हमेशा के लिए खो जाएगी। इस संभावित स्थिति से हम सभी को पूरी तरह से सावधान रहना चाहिए। हमें अपने खून की आखिरी बूँद तक अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए दृढ़ संकल्पित होना चाहिए।”

 

-प्रदीप कुमारकहा, “वर्तमान समय में संसदीय चर्चा में शिष्टाचार और अनुशासन की कमी है, आज के दिन हमें अपनी संविधान सभा की शानदार कार्यप्रणाली को दोहराकर इसका समाधान करना चाहिए। रणनीति के रूप में अशांति पैदा करना लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए खतरा है। रचनात्मक संवाद, बहस और सार्थक चर्चा के माध्यम से हमारे लोकतांत्रिक मंदिरों की पवित्रता को बहाल करने का समय आ गया है ताकि हम लोगों की प्रभावशाली ढंग से सेवा कर सकें।उपराष्ट्रपति ने कहा, “यह उत्कृष्ट कृति हमारे संविधान निर्माताओं की गहन दूरदर्शिता और अटूट समर्पण का उपहार है, जिन्होंने लगभग तीन वर्षों में हमारे देश की नियति को आकार दिया, मर्यादा और समर्पण का उदाहरण प्रस्तुत किया तथा आम सहमति और समझदारी पर ध्यान केंद्रित करते हुए विवादास्पद और विभाजक मुद्दों पर विचार किया।सरकार के अंगों के बीच सत्ता के विभाजन की भूमिका और उनके बीच मुद्दों को हल करने के लिए एक तंत्र बनाने की आवश्यकता पर जोर देते हुए, उपराष्ट्रपति धनखड़ ने कहा, “हमारा संविधान लोकतंत्र के तीन स्तंभों – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका – को सरलता से स्थापित करता है – जिनमें से प्रत्येक की भूमिका परिभाषित है। लोकतंत्र का सबसे अच्छे तरीके से विकास तब होता है जब इसकी संवैधानिक संस्थाएँ अपने अधिकार क्षेत्र का पालन करते हुए आपसी सामंजस्य, मेलजोल  और एकजुटता से काम करती हैं। सरकार के इन अंगों के कामकाज में, अपने-अपने क्षेत्रों की विशिष्टता ही वह तत्व है जो भारत को समृद्धि और समानता की अभूतपूर्व ऊंचाइयों की ओर ले जाने में अभूतपूर्व योगदान दे सकती है। इन संस्थानों के शीर्ष पर बैठे लोगों के बीच परस्पर संवाद के तंत्र के विकास से मिलजुलकर राष्ट्र की सेवा में अधिक आसानी होगी।”

 

संविधान की प्रस्तावना के प्रारंभिक शब्दों – “हम भारत के लोग”- का उल्लेख करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा कि “संविधान के प्रारंभिक शब्द, ‘हम भारत के लोग’, गहरे अर्थ रखते हैं, जो यह स्थापित करते हैं कि अंतिम अधिकार नागरिकों का ही है, तथा संसद उनकी आवाज के रूप में कार्य करती है”। इसमें लोगों की संप्रभुता को रेखांकित किया गया है।मौलिक कर्तव्यों के पालन पर जोर देते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा, “हमारा संविधान मौलिक अधिकारों का आश्वासन देता है और मौलिक कर्तव्यों का निर्धारण करता है। यह उस नागरिकता को परिभाषित करता है, जो हर बात से अवगत हो, और डॉ. अंबेडकर की इस चेतावनी को भी व्यक्त करता है कि बाहरी खतरों से कहीं अधिक आंतरिक संघर्ष लोकतंत्र को खतरे में डालते हैं। अब समय आ गया है कि हम राष्ट्रीय संप्रभुता की रक्षा, एकता को बढ़ावा देने, राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देने और अपने पर्यावरण की सुरक्षा के अपने मौलिक कर्तव्यों के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध हों। हमें हमेशा अपने राष्ट्र को सर्वोपरि रखना चाहिए। हमें पहले से कहीं अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है। ये प्रतिबद्धताएँ हमारे विकसित भारत @ 2047 के दृष्टिकोण को प्राप्त करने और एक ऐसा राष्ट्र बनाने के लिए महत्वपूर्ण हैं जो प्रगति और समावेश का उदाहरण हो।”संसद सदस्यों के कर्तव्यों पर विशेष रूप से जोर देते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा, “सभी नागरिकों, विशेष रूप से संसद सदस्यों को ऐसे कदम उठाने चाहिए ताकि विश्व के मंच पर हमारे राष्ट्र की गूंज हो। इस सम्मानित सदन में लोकतांत्रिक बुद्धिमत्ता की गूंज हो, नागरिकों और उनके निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच गहरा संबंध बना रहे।”

 

आपातकाल के अंधेरे दौर को याद करते हुए,उपराष्ट्रपति  धनखड़ ने कहा, “लोकतंत्र के संरक्षक के रूप में, हम अपने नागरिकों के अधिकार और उनकी आकांक्षाओं का सम्मान करने और राष्ट्रीय कल्याण और सार्वजनिक हित से प्रेरित उत्कृष्टतम योगदान देकर उनके सपनों को निरंतर आगे बढ़ाने का पवित्र कर्तव्य निभाते हैं। यही कारण है कि अब 25 जून को हर साल आपातकाल की याद दिलाने के लिए विशेष दिवस मनाया जाता है – वह सबसे काला दौर जब नागरिकों के मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था, लोगों को बिना किसी कारण के हिरासत में लिया गया था और नागरिक अधिकारों का उल्लंघन किया गया था।”राष्ट्र को सर्वोपरि रखने की आवश्यकता पर जोर देते हुए,उपराष्ट्रपति धनखड़ ने डॉ. बी.आर. अंबेडकर के भाषण का जिक्र किया और कहा, “मैं अंत में 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में दिए गए अंतिम भाषण में डॉ. अंबेडकर के विचारों का उल्लेख करना चाहता हूँ: “जो बात मुझे सबसे अधिक परेशान करती है, वह यह है कि भारत ने न केवल एक बार अपनी स्वतंत्रता खोयी है, बल्कि उसने इसे अपने ही कुछ लोगों के कपट और विश्वासघात के कारण खो दिया है। क्या इतिहास खुद को दोहराएगा?

 

“यही विचार मुझे चिंता से भर देता है। यह चिंता इस तथ्य के एहसास से और भी गहरी हो जाती है कि जातियों और पंथों के रूप में हमारे पुराने शत्रुओं के अलावा हमारे पास कई राजनीतिक दल होंगे जिनके राजनीतिक पंथ अलग-अलग और परस्पर विरोधी होंगे। क्या भारतीय लोग देश को अपने पंथ से ऊपर रखेंगे या वे पंथ को देश से ऊपर रखेंगे?””मुझे नहीं पता। लेकिन इतना तो निश्चित है कि अगर पार्टियां धर्म को देश से ऊपर रखती हैं, तो हमारी स्वतंत्रता दूसरी बार ख़तरे में पड़ जाएगी और शायद हमेशा के लिए खो जाएगी। इस संभावित स्थिति से हम सभी को पूरी तरह से सावधान रहना चाहिए। हमें अपने खून की आखिरी बूँद तक अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए दृढ़ संकल्पित होना चाहिए।”

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