Kashmir news- कश्मीर की ग्रामीण आबादी कभी बड़े पैमाने पर पारंपरिक हैंड मेड ईख की चटाइयों का इस्तेमाल करती थी, जिसे स्थानीय भाषा में ‘वागू’ कहा जाता है। गांवों में इनका चलन भले ही कम हो गया हो, लेकिन घाटी के शहरी इलाकों में इसकी तेजी से वापसी हो रही है।उद्यमी अपने व्यावसायिक जगहों को आकर्षक बनाने के लिए इन वागू का इस्तेमाल कर रहे हैं। इससे यहां आने वालों को कश्मीर की पारंपरिक चटाई की झलक मिल रही है, जो कि लंबे समय से उपेक्षित थी।वागू एक समय कश्मीर के हर घर में मौजूद थी। ये चटाइयां फर्श की सुंदरता बढ़ाती थीं और सजावट के लिहाज से भी आकर्षक लगती थीं।
एक वागू को बनाने में दो-तीन दिन लगते हैं, ये उसके साइज पर निर्भर करता है। कारीगर इन वागू को करीब एक हजार रुपये तक में बेचते हैं। बिनकरों ने हस्तशिल्प विभाग के समर्थन से, इस कला के फिर से विस्तार की उम्मीद जताई है।कई लोगों का मानना है कि ये पारंपरिक चटाई पर्यावरण-अनुकूल होने के साथ ही कश्मीर के मौसम के लिए बिल्कुल उपयुक्त है। वो ये भी दावा करते हैं कि उन पर बैठने से पीठ दर्द जैसी बीमारियों को रोकने में मदद मिलती है।
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जम्मू-कश्मीर हस्तशिल्प निदेशक महमूद अहमद शाह ने कहा कि तो हमारी कोशिश ये रही है पिछले एक-आध साल में कि इस क्राफ्ट को थोड़ा सा रिवाइवल करें और साथ ही साथ इसको फिर से अपने घरों में या अपने ये जो हमारे होटल बन रहे हैं या जो ऑफिशियल स्पेसेस बन रहे हैं उसमें कहीं न कहीं ये फिट हो। तो मुझे इस बात की खुशी है कि आज जो हमारे होटल बन रहे हैं, रेस्टोरेंट बन रहे हैं तो कहीं न कहीं वागू का इस्तेमाल हो रहा है।
हुकस बुकस कैफे प्रबंधक वसीम काकरू ने कहा कि ये जो वागू है, ये बनता है डल पर जो होता है नद्रू, उसके घास का ये बनता है। तो हमने उसके साथ इनको टच रखा, तो मासाअल्लाह इसकी लुकिंग भी अच्छी रही, जो आजकल लोग हमें यहां आते हैं, वो देखकर इसी के बारे में पूछते हैं कि आपने इसे कैसे किया, कहां से आया? क्योंकि ये जो आर्ट है ये आज खत्म हो गया है। तो यहां हर जगह नहीं मिलता है ये, मेरे ख्याल से सुम्बल में और शोपियां में मिलता है, वो भी खास जगह।
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