Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि बिना किसी वास्तविक आस्था के केवल आरक्षण का लाभ पाने के लिए किया गया धर्म परिवर्तन ‘‘संविधान के साथ धोखाधड़ी’’ है। जस्टिस पंकज मिथल और न्यायमूर्ति आर. महादेवन ने सी. सेल्वरानी की याचिका पर 26 नवंबर को ये फैसला सुनाया और मद्रास हाई कोर्ट के 24 जनवरी के उस फैसले को बरकरार रखा, जिसमें ईसाई धर्म अपना चुकी एक महिला को अनुसूचित जाति प्रमाण पत्र देने से इनकार कर दिया गया था।
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महिला ने बाद में आरक्षण के तहत रोजगार का लाभ लेने के लिए हिंदू होने का दावा किया था। जस्टिस महादेवन ने पीठ के लिए 21 पेज का फैसला लिखा। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि कोई व्यक्ति किसी और धर्म को तभी अपनाता है, जब वो वास्तव में उसके सिद्धांतों, धर्म और आध्यात्मिक विचारों से प्रेरित होता है। उन्होंने कहा, अगर धर्म परिवर्तन का मुख्य मकसद दूसरे धर्म में वास्तविक आस्था होने के बजाय आरक्षण का लाभ लेना है तो इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती क्योंकि ऐसी गलत मंशा रखने वाले लोगों को आरक्षण का लाभ देने से आरक्षण नीति के सामाजिक लोकाचार को ही क्षति पहुंचेगी।
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पीठ के समक्ष प्रस्तुत सबूतों से साफ पता चलता है कि अपीलकर्ता ईसाई धर्म को मानती थी और रोजाना गिरजाघर में जाकर सक्रिय रूप से इस धर्म का पालन करती थी। पीठ ने कहा, इसके बावजूद वह हिंदू होने का दावा करती है और नौकरी के लिए अनुसूचित जाति समुदाय का प्रमाण-पत्र मांगती है।पीठ ने कहा, इस तरह का दोहरा दावा अस्वीकार्य है और वो ईसाई धर्म अपनाने के बावजूद एक हिंदू के रूप में अपनी पहचान बनाए नहीं रख सकती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि महिला ईसाई धर्म में आस्था रखती हैं और महज नौकरी में आरक्षण का लाभ उठाने के मकसद से वो हिंदुत्व का अब तक पालन करने का दावा करती हैं। ऐसे में महिला को अनुसूचित जाति का दर्जा प्रदान करना आरक्षण के मूल उद्देश्य के खिलाफ होगा और संविधान के साथ धोखाधड़ी होगी।