Preamble of Indian Constitution: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि संविधान की प्रस्तावना में “समाजवादी”, “धर्मनिरपेक्ष” और “अखंडता” जैसे शब्द जोड़ने वाले 1976 के संशोधन की न्यायिक समीक्षा की गयी है और ये नहीं कहा जा सकता कि आपातकाल के दौरान संसद ने जो कुछ भी किया वो सब निरर्थक था।प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने पूर्व राज्यसभा सदस्य सुब्रमण्यम स्वामी, वकील विष्णु शंकर जैन समेत कई और लोगों की उन याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया, जिनमें संविधान की प्रस्तावना में “समाजवादी” और “धर्मनिरपेक्ष” शब्दों को शामिल किए जाने को चुनौती दी गई थी।
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हालांकि प्रधान न्यायाधीश ने कहा, “42वां संशोधन की न्यायालय ने कई बार न्यायिक समीक्षा की है। संसद ने हस्तक्षेप किया है। हम ये नहीं कह सकते कि आपातकाल में संसद ने जो कुछ भी किया वो सब निरर्थक था।””समाजवादी”, “धर्मनिरपेक्ष” और “अखंडता” शब्दों को 1976 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने
42वें संविधान संशोधन के तहत संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया था।संशोधन के जरिए प्रस्तावना में भारत के वर्णन को “संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य” से बदलकर “संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य” किया गया था।भारत में आपातकाल की घोषणा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 तक की थी।
पीठ ने कहा कि वो इस मुद्दे पर 25 नवंबर को अपना आदेश सुनाएगी।सुनवाई के दौरान पीठ ने याचिकाकर्ता के अनुरोध के मुताबिकमामले को दूसरी पीठ को भेजने से इनकार कर दिया और कहा कि भारतीय अर्थ में “समाजवादी होना”एक “कल्याणकारी राज्य” माना जाता है।वकील जैन ने कहा कि नौ न्यायाधीशों की संविधान पीठ के हालिया फैसले में बहुमत की राय ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीशों- न्यायमूर्ति वी. आर. कृष्ण अय्यर और ओ. चिन्नप्पा रेड्डी ने “समाजवादी” शब्द की व्याख्या पर संदेह व्यक्त किया।
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पीठ ने कहा, “भारत में समाजवाद को हम जिस तरह समझते हैं, वो दूसरे देशों से बहुत अलग है। हमारे संदर्भ में समाजवाद का मुख्य अर्थ कल्याणकारी राज्य है। बस इतना ही। इसने कभी भी निजी क्षेत्र को नहीं रोका है, जो अच्छी तरह से फल-फूल रहा है। हम सभी को इससे लाभ हुआ है।”न्यायमूर्ति खन्ना ने कहा कि समाजवाद शब्द का इस्तेमाल दुनिया भर में अलग-अलग संदर्भों में किया जाता है और भारत में इसका मतलब है कि राज्य कल्याणकारी है और उसे लोगों के कल्याण के लिए खड़ा होना चाहिए और अवसरों की समानता देनी चाहिए।”
उन्होंने कहा कि शीर्ष अदालत ने 1994 के ‘एस आर बोम्मई’ मामले में ‘‘धर्मनिरपेक्षता’’ को संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा माना था।वकील जैन ने दलील दी कि संविधान में 1976 का संशोधन लोगों की बात सुने बिना पारित किया गया था, क्योंकि ये आपातकाल के दौरान पारित किया गया था और इन शब्दों को इसमें शामिल करने का अर्थ होगा लोगों को विचारधाराओं का पालन करने के लिए मजबूर करना।