दिमाग ही खा रहा दिमाग… जानें क्या है इस पहेली का राज?

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Phagocytosis: यहां से भाग जाओ, मेरा दिमाग न खाओ.. आपने भी ये डायलॉग जरुर सुना होगा और भूल गए होंगे, लेकिन अगर मैं कहूँ कि सच में कोई आपका दिमाग खाता है तो आप चौंक जाएंगे। वह कहते हैं ना कि इंसान का दिमाग ही उसे लाखों जीव-जन्तुओं में से अलग करता है। एक व्यक्ति की सोच और समझ का गुण उसे एक इंसान बनाता है।

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दरअसल, हमारे मस्तिष्क में बनने वाली कोशिकाओं, या सिनेप्सेस, के बीच संबंधों पर हम जो कुछ भी करते हैं या जो कुछ भी हैं ये निर्भर करता है। पुराने समय में, वयस्कों का मस्तिष्क अक्सर “स्थिर” माना जाता था लेकिन वैज्ञानिकों के हाल ही में किए गए शोध से पता चला है कि मस्तिष्क बदलता रहता है और स्थिर नहीं रहता। हमारे शरीर की तरह ही हमारा दिमाग भी कमजोर होने लगता है। लोग अक्सर परेशान हो जाते हैं और कहते हैं कि जाओ दिमाग मत खाओं लेकिन आप जानकर हैरान हो जाएंगे कि ये सिर्फ बातें नहीं हैं, ये हकीकत है और जो हमारे दिमाग को खाता है वो हम नहीं बल्कि खुद दिमाग है, जिसे फैगोसाइटोसिस कहते हैं।

फैगोसाइटोसिस एक प्रक्रिया है जिसके दौरान कोशिकाएं, छोटी कोशिकाओं और छोटे अणुओं को निगल जाती है और फिर उन्हें शरीर से बाहर निकाल देती हैं। दूसरे शब्दों में, छोटी कोशिकाएं बड़ी कोशिकाओं का भोजन बन जाती हैं। हमारा इम्यून सिस्टम भी इसी पर आधारित है, जिसमें व्हाइट ब्लड सेल्स पैथोजन्स को खाते हैं, इस तरह हमारे शरीर को किसी भी बुरे प्रभाव से बचाते हैं। फैगोसाइटोसिस प्रक्रिया का उद्देश्य दिमाग की प्रोडक्टिविटी को बनाए रखना है, ताकि दिमाग ठीक से काम करता रहे। यह होमियोस्टेसिस है। हमारे शरीर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा, दिमाग, प्रतिदिन 24 घंटे काम करता रहता है। यह जीवित रहने और आवश्यक कार्यों को करने में शरीर की ऊर्जा आपूर्ति का लगभग एक तिहाई हिस्सा खर्च करता है। इसका अर्थ यह है कि हमारा दिमाग एक सेलुलर पावरहाउस है।

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हालाँकि, कभी-कभी आपको अपने मन से कई विचारों को हटाना या बदलना पड़ता है, यह एक आम प्रक्रिया नहीं है। ऐसे में हमारा दिमाग भी “छंटाई” शुरू कर देता है, खासकर किशोरावस्था में। इससे बचपन के दौरान जमा किए गए सभी अनावश्यक न्यूरोलॉजिकल कनेक्शन मिट जाते हैं। और वे बेकार में खर्च किए गए संसाधन को अधिक उपयोगी वस्तुओं में बदल देते हैं। हमारा दिमाग इस प्रक्रिया से अधिक कुशल और वयस्क जीवन के लिए तैयार हो जाता है और यह सब इसलिए हो होता है क्योंकि हमारा दिमाग सच में खुद को खा रहा है, लेकिन ऐसे तरीकों से जो इसे बेहतर बनाते हैं, बेकार नहीं।

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