राष्ट्रीय वन शहीद दिवस: अक्सर आपने सुना होगा कि धरती, जंगल, जल और वायु हमारे लिए बेहद जरूरी है। हिंदू शास्त्रों में पेड़ों की महत्ता का जिक्र देखने को मिल जाता है। बदलते वक्त के साथ पेड़ों को कटना आम बात हो गई है और देखते ही देखते पेड़ इतने अधिक कम हो गए कि हमें जहरीली हवा में सांस लेना पड़ रहा है। जहां कुछ लोग अपने फायदे के लिए इन पेड़ों को बिना किसी बात की परवाह किए काट देते हैं, वहीं हमारे इतिहास में कुछ लोग ऐसे भी थे जो पेड़ों को बचाने के लिए हंसते-हंसते शहीद हो गए थे, लेकिन उन्होंने पेड़ों को कटने नहीं दिया। उनको सम्मान देने के लिए ही प्रत्येक वर्ष 11 सितंबर को राष्ट्रीय वन शहीद दिवस मनाया जाता है।
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राष्ट्रीय वन शहीद दिवस क्या है ?
इस दिन की शुरुआत साल 2013 में हुई थी। तत्कालीन पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा इस दिन को मनाने का आरंभ किया गया था। इस दिन की जड़ें 1730 के ऐतिहासिक नरसंहार से जुड़ी हुई है। इसके पीछे का मुख्य उद्देश्य वन रक्षकों, रेंजरों और कर्मियों के बलिदान को सम्मान देना है। यह दिन इस खास बात पर प्रकाश डालता है कि वन का महत्व केवल पेड़ों का संग्रह करना नहीं है बल्कि इससे कई ज्यादा है। इसके साथ अवैध शिकार, कटाई और अतिक्रमण जैसी गतिविधियों को रोकने के लिए जो जोखिम उठाया जाता है, उस पर ध्यान केंद्रित करता है।
11 सितंबर को ही क्यों मनाया जाता है राष्ट्रीय वन शहीद दिवस ?
कहानी कुछ यूं है कि मारवाड़ा साम्राज्य के महाराज अभय सिंह को अपना एक महल बनवाना था जिसके लिए उन्हें भारी मात्रा में लकड़ियों की आवश्यकता पड़ी। राजस्थान में ज्यादातर जगह बंजर भूमि थी, मगर खेजड़ी नाम की जगह पर कुछ पेड़ों का संग्रह था। राजा ने सैनिकों को वहां से पेड़ लेकर आने के लिए कहे, लेकिन जैसे ही सैनिक वहां पहुंचे तो वहां के लोगों ने उन्हें पेड़ काटने से मना कर दिया।
दरअसल, वहां के बिश्नोई समाज के लोग इन पेड़ों को अपना देवता मानकर उनकी पूजा करते थे। अमृता देवी बिश्नोई के नेतृत्व में बिश्नोई समाज के लोगों ने इन पेड़ों की रक्षा के लिए उनको अपने गले से लगा लिया। गुस्साए सैनिकों ने पेड़ के साथ चिपकी हुईं अमृता बिश्नोई के गले को भी काट दिया। जिसके बाद उनकी 3 बेटियों आसू, भागू और रत्नी ने भी इन पेड़ों की रक्षा के लिए खुद को कुर्बान कर दिया। इस घटना के बाद वहां आस-पास के 83 गांव के 363 लोगों ने पेड़ों को कटने से बचाने के लिए अपनी जान गंवा दी। पेड़ों से इस कदर लगाव की इस ऐतिहासिक और दर्दनाक घटना का दिन 11 सितंबर, 1730 का था।
पेड़ बचाने के लिए भारत में हुए कई बड़े आंदोलन-
बिश्नोई आंदोलन- यह लगभग आज से 400 साल पहले चला आंदोलन है, जो हमारे धर्म और पर्यावरण को बचाने के लिए एक अनूठी मिसाल पेश करता है। इस आंदोलन में पेड़ों को बचाने के लिए 83 गांवों के 363 से ज्यादा लोग शहीद हुए थे। इसकी वजह से ही हर साल 11 सितंबर को राष्ट्रीय वन शहीद दिवस मनाया जाता है।
चिपको आंदोलन- यह आंदोलन साल 1973 में शुरू हुआ था। जिसका प्रभाव उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल और चमोली में देखने को मिला। सरकार वहां के जंगलों से लकड़ी काटकर फायदा कमा रही थी। वहां के लोगों ने पेड़ों को गले से लगाकर पर्यावरण प्रेम का एक उदाहरण पेश किया। वहां के लोगों की मांग थी कि ज्यादा संख्या में वृक्षों को ना काटा जाए साथ ही पेड़ों और संसाधनों का मुनाफा स्थानीय लोगों को मिले।
साइलेंट वैली बचाओ अभियान- 1973 में केरल के बिजली बोर्ड ने कुंतीपुझा नदी पर डैम बनाने की योजना तैयार की थी। जिसमें आस पास के लोगों को लगने लगा कि लगभग साढ़े 8 वर्ग किलोमीटर में फैले जंगलों को इस डैम के लिए कुर्बान कर दिया जाएगा। सुगाथा कुमारी और केरल शास्त्र साहित्य परिषद नामक संस्था ने जंगलों को बचाने के लिए इस अभियान की शुरुआत की थी। 1981 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी साइलेंट वैली संरक्षित करने की घोषणा की थी। हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट को 1983 में वापिस लिया गया। 1985 में राजीव गांधी द्वारा साइलेंट वैली नेशनल पार्क की शुरुआत की गई।
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जंगल बचाओ आंदोलन- इस आंदोलन का आरंभ 1980 के दशक में झारखंड के सिंहभूम जिले में हुआ था। वहां की सरकार ने प्राकृतिक साल के पेड़ों वाले वन के स्थान पर व्यावसायिक सौगान के बागान विकसित करने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन वहां की जनता को यह प्रस्ताव मंजूर नहीं था। प्रशासन के इस कदम को ‘सियासत का लालची खेल’ नाम दिया गया था। इसके बाद यह आंदोलन उड़ीसा और अन्य राज्यों में लंबे समय तक जारी रहा। इस आंदोलन में 18 आंदोलनकारी मारे गए, सैंकड़ों लोग घायल हुए और 15 हजार से ज्यादा केस दर्ज किए गए।
अप्पिको आंदोलन- यह आंदोलन 1983 में उत्तर कर्नाटक के शिमोगा जिले में शुरू हुआ था। इस आंदोलन की प्रेरणा चिपको आंदोलन से ली गई थी। इसमें चर्चित नाम पांडुरंग हेगड़े अप्पिको थे। इस आंदोलन में पेड़ों को बचाने के लिए जंगलों में पैदल मार्च, स्लाइड शो और नुक्कड़ नाटकों का सहारा लिया गया।