कर्नाटक के बेंगलुरु में शनिवार को उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने आज कहा, “सेवा में विस्तार, किसी विशेष पद के लिए किसी भी प्रकार का विस्तार, उन व्यक्तियों के लिए एक रुकावट है, जो अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। यह अपेक्षा के तार्किक सिद्धांत के खिलाफ है। हमारे पास एक अपेक्षा का सिद्धांत है, जिसमें लोग अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए कई वर्षों तक प्रयास करते हैं। विस्तार यह संकेत देता है कि, कोई व्यक्ति अत्यंत आवश्यक है। ‘अत्यंत आवश्यक’ होना एक मिथक है। इस देश में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है। कोई भी व्यक्ति अत्यंत आवश्यक नहीं है। इसलिए, राज्य और केंद्र स्तर पर लोक सेवा आयोगों का कर्तव्य है कि जब ऐसे मामलों में उनकी भूमिका हो, तो वे दृढ़ता से निर्णय लें।
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आज कर्नाटक के बेंगलुरु में सभी राज्य लोक सेवा आयोगों के अध्यक्षों के 25वें राष्ट्रीय सम्मेलन में उद्घाटन भाषण देते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा, “बहुत सावधानी से मैं इस विषय पर विचार कर रहा हूं। लोक सेवा आयोगों में नियुक्तियाँ किसी तरह की सिफारिश या पक्षपाती व्यवहार से प्रेरित नहीं होनी चाहिए। कुछ प्रवृत्तियाँ स्पष्ट रूप से दिख रही हैं, जिन पर मैं ज्यादा चर्चा नहीं करना चाहता, लेकिन उनमें से कुछ बहुत ही कष्टकारी हैं। हमें अपनी आत्मा के प्रति जिम्मेदार होना चाहिए। हम किसी लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष या सदस्य को किसी विशेष विचारधारा या व्यक्ति से जुड़ा नहीं देख सकते। ऐसा करने से संविधान के मूल उद्देश्य और उसकी भावना का उल्लंघन होगा।
सेवानिवृत्ति के बाद की नियुक्तियों की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए उपराष्ट्रपति धनखड़ ने कहा, “सेवानिवृत्ति के बाद की भर्ती एक गंभीर समस्या बन गई है। कुछ राज्यों में इसे व्यवस्थित किया गया है। कर्मचारी विशेष रूप से उच्च श्रेणी की सेवाओं में कभी सेवानिवृत्त नहीं होते। उन्हें कई अस्थायी पदनाम दिए जाते हैं। यह उचित नहीं है। देश के प्रत्येक नागरिक को उनका अधिकार मिलना चाहिए, जो कि कानून द्वारा निर्धारित है। इस प्रकार की किसी भी सुविधा का वितरण संविधान के निर्माताओं द्वारा निर्धारित दृष्टिकोण के विपरीत है।
पेपर लीक पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए उपराष्ट्रपति धनखड़ ने कहा, “यह एक गंभीर समस्या बन चुकी है, जिसे हमें सख्ती से नियंत्रित करना होगा। यदि पेपर लीक होते हैं तो चयन की निष्पक्षता का कोई महत्व नहीं रह जाता और अब पेपर लीक एक व्यवसाय और उद्योग का रूप ले चुका है। पहले लोग, विशेष रूप से युवा लड़के और लड़कियां, परीक्षा को लेकर डरते थे, यह सोचते थे कि सवाल कितने कठिन होंगे और उन्हें कैसे हल करेंगे। अब उनके पास दो डर होते हैं – एक परीक्षा का डर और दूसरा लीक होने का डर। जब वे महीनों और हफ्तों तक परीक्षा की तैयारी में कड़ी मेहनत करते हैं और फिर पेपर लीक का सामना करते हैं, तो यह उनके लिए एक बहुत बड़ी निराशा होती है।”
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राजनीति के विभाजनकारी और ध्रुवीकृत स्वभाव को उजागर करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा, “वर्तमान में हमारी राजनीति अत्यधिक विभाजनकारी और ध्रुवीकृत है। राजनीतिक संगठनों में उच्च स्तर पर आपसी संवाद की कमी है। जब बात राष्ट्र की आती है और जब दुनिया एक परिवर्तनकारी चरण में है, तो यह भारत की सदी है। यह सदी तभी पूरी तरह से फलित हो सकती है, जब हमारे पास शांतिपूर्ण राजनीतिक वातावरण हो…..हमें राजनीतिक संकट को शांत करने वाले अग्निशामकों की आवश्यकता है। एक राजनीतिक विभाजन और विषाक्त राजनीतिक वातावरण, जलवायु परिवर्तन से कहीं अधिक खतरनाक है, जिसका हम सामना कर रहे हैं।
उन्होंने कहा-“राजनीति में सामंजस्य केवल एक इच्छाशक्ति या एक आकर्षक पहलू नहीं है, बल्कि यह अनिवार्य है। यदि राजनीति में सामंजस्य नहीं है, यदि राजनीति विभाजित और गहरे रूप से ध्रुवीकृत है और संवाद के कोई साधन काम नहीं कर रहे हैं, तो सोचिए जैसे आप भूकंप में फंसे हो, खो गए हो और बाहरी दुनिया से कोई संपर्क नहीं है, तो आपकी स्थिति बहुत ही भयावह हो जाएगी।
संस्थाओं की मजबूती के महत्व को रेखांकित करते हुए उपराष्ट्रपति धनखड़ ने कहा, “संस्थाओं का कमजोर होना पूरे देश के लिए हानिकारक है। अगर कोई संस्था कमजोर होती है, तो यह पूरे राष्ट्र को प्रभावित करता है। किसी संस्था को कमजोर करना शरीर पर कांटे की तरह होता है, जिससे पूरा शरीर दर्द से पीड़ित होता है। इसलिए मैं कहना चाहता हूं कि हमें संस्थाओं को मजबूत करना चाहिए। राज्य और केंद्र को मिलकर काम करना चाहिए। उन्हें सामंजस्यपूर्ण तरीके से काम करना चाहिए और राष्ट्रीय हित में एक-दूसरे के साथ तालमेल बनाए रखना चाहिए।”
देश की समस्याओं को अनदेखा करने के बजाय संवाद और चर्चा के माध्यम से हल करने की आवश्यकता पर जोर देते हुए उपराष्ट्रपति धनखड़ ने कहा, “हम एक ऐसा देश हैं जहां विभिन्न विचारधाराओं का शासन होना स्वाभाविक है, और क्यों न हो? यह हमारे समाज में समावेशिता का प्रतीक इसलिए मैं इस मंच से आग्रह करता हूं कि जो लोग शासन में हैं, उन्हें सभी स्तरों पर संवाद बढ़ाना चाहिए, सर्वसम्मति में विश्वास करना चाहिए, विचार-विमर्श के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। देश के सामने जो समस्याएं हैं, उन्हें हम पीछे नहीं धकेल सकते। अब हम समस्याओं को अनदेखा नहीं कर सकते। हमें इनका समाधान जल्द से जल्द करना होगा… मैं सभी राजनीतिक दलों के वरिष्ठ नेतृत्व से अनुरोध करता हूं कि वे एक ऐसा वातावरण बनाएं, जो संवाद और चर्चा को बढ़ावा दे, चाहे वह औपचारिक हो या अनौपचारिक। सहमति आधारित संवाद हमारे सांस्कृतिक मूल्यों में गहरे से निहित है। यह वही संदेश है जो हम दुनिया को देते हैं। अब हमें इस संदेश को अपने लिए भी अपनाने का समय आ गया है।”
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समाज में बुद्धिजीवियों की भूमिका पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा, “बुद्धिजीवियों का काम हमें मार्गदर्शन देना है। बुद्धिजीवियों को सामाजिक अशांति या किसी समस्या के समय, आग बुझाने वाले अग्निशामकों के रूप में कार्य करना चाहिए। मुझे लगता है कि बुद्धिजीवी अब समूहों में बंट गए हैं। वे प्रतिनिधित्व पर हस्ताक्षर करते हैं, जिन्हें उन्होंने शायद पढ़ा भी नहीं होता। वे समझते हैं कि प्रतिनिधित्व पर हस्ताक्षर करना एक पासवर्ड है, जिसके जरिए उन्हें एक पद मिल सकता है, यदि कोई विशेष सरकार सत्ता में आती है। अब देखिए बुद्धिजीवियों को, पूर्व नौकरशाहों को, पूर्व राजनयिकों को। आपने सार्वजनिक सेवा में एक स्तर हासिल किया है, जिसे दूसरों को अनुसरण करना चाहिए। आपको अपने प्रतिनिधित्व में निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ होना चाहिए। आप अपने व्यक्तिगत हितों को बढ़ावा देने के लिए राजनीतिक बदलाव के आधार पर समूह नहीं बना सकते।”
इस अवसर पर थावरचंद गहलोत, कर्नाटक के माननीय राज्यपाल, सिद्धारमैया, कर्नाटक के माननीय मुख्यमंत्री, श्रीमती यूपीएससी की अध्यक्ष प्रीति सूदन, हरियाणा लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष आलोक वर्मा, कर्नाटक लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष शिवशंकरप्पा एस साहूकार और अन्य गणमान्य व्यक्ति भी उपस्थित थे।
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